महात्मा गांधी के नेतृत्व में संचालित असहयोग आंदोलन में महिलाओं की भूमिका
बंसो नुरूटी
सहायक प्राध्यापक, इतिहास अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
साराँश
मानव समाज के समुचित एवं सर्वांगीण विकास में महिलाओं का योगदान किसी भी दृष्टि से कम नहीं रहा है। घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की समग्र-चेतना एवं स्वरूप को प्रभावित करने वाली महिला का आभास समाज में उसके स्थान समाज-राष्ट्र निर्माण के कार्य में उसकी सक्रिय सहभागिता पर निर्भर करता रहा है।1
भारत के स्वाधीनता आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस संदर्भ में भारतीय राष्ट्र की स्मृति में कई चित्र्र एक साथ उभरते हैं कई अर्थों में भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति में सुधार और आजादी की लड़ाई में महिलाओं के योगदान के बीच परस्पर पूरकता का संबंध था एनी बिसेण्ट व सरोजिनी नायडू ने कांगे्रस की अध्यक्षता का दायित्व संभाल कर सर्वोच्च नेतृत्व के स्तर को दिशा दी। इसी प्रकार प्रीतिलता वाडेदार और कल्पना दत्त ने क्रांतिकारी आंदोलन में अपना सर्वोच्च बलिदान दिये थे। रमा बाई रानाडे ने महिलाओं की समाजिक स्थिति में सुधार लाने के लिए शिक्षा शक्ति का विस्तार करके चुनौती दी तो, कमला देवी चट्टोपाध्याय व सुचेता कृपलानी ने गांवों में घूम-घूमकर किसानों व ग्रामीण महिलाओं की राजनीतिक क्षमता को बढ़ाने के लिए प्रेरणा दिये।2 लक्ष्मीबाई से लेकर कस्तूरबा तक आदर्श स्थापित करने में पीछे नहीं रही है, उनका चरित्र प्रेरणादायी रहा है। दूसरी तरफ महिलाओं को राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक उपेक्षा के दायरे से मुक्ति प्रदान करना भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के आदर्शों में अंतर्निहित था। महात्मा गाँधी जी ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में कूदने के लिए महिलाओं को प्रेरित किया था साथ ही साथ नेतृत्व करने का भी पूरा अवसर दिया। स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी, सुशीला नैय्यर, विजय लक्ष्मी पण्डित, अरूणा असाफ अली, राजकुमारी अमृत कौर, कमला नेहरू, इंदिरा गांधी तथा कई अन्य महिला नेताओं ने कांग्रेस को सशक्त बनाने में योगदान दिया। महिलाओं ने महात्मा गांधी की प्रेरणा से सामाजिक उत्थान तथा अन्य रचनात्मक कार्यों को अपनाया। यही नहीं गांधी जी ने कुछ विदेशी महिलाओं को भी अपने व्यवहार व स्नेह से इतना प्रभावित किया कि वे अपना देश छोड़कर न केवल भारत में बस गई बल्कि भारतीय नाम और जीवन पद्धति भी अपनाई और रचनात्मक कार्यों में सक्रिय सहयोग दिया। जैसे कि सरला बेन तथा मीरा बेन का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।3
20वीं शताब्दी में महात्मा गांधी ने महिला समानता के लिए संघर्ष को स्वराज के लिए आंदोलन का अभिन्न अंग बनाया। महिलाओं की भूमिका की दृष्टि से हमारे स्वाधीनता आंदोलन का सबसे शानदार अध्याय 1930-42 को सुशिक्षित अशिक्षित महिलाओं के संघर्ष से बना। महिलाएँ क्रांतिकारी बलिदानी जुत्थे और अहिंसक असहयोेगी सत्याग्रह तथा करो या करों की टोलियों में बराबरी की हिस्सेदारी बनी।
प्रसिद्ध क्रांतिकारी मास्टर सूर्यसेन के दस्ते की एक नायिका कल्पना दत्त जिन्हें गिरफ्तारी के बाद अंग्रेजों ने आजीवन कारावास की सजा दी थी।4
इसी प्रकार 1930 के सत्याग्रह में महिलाओं ने जो सहनशीलता दिखाई उसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई। सरोजिनी नायडू ने धारसाड़ा के नामक सत्याग्रह में दो हजार व्यक्तियों का नेतृत्व प्रदान की, इनकी टोली को सरकारी नमक गोदाम के सामने रोक दिया गया, जहां पर मई महीने की तपती हुई बालू में सारे दिन भूखी-प्यासी धूप में नायडू अपनी टोली के साथ बैठी रही।5
भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के विकास एवं प्रक्रिया से महिलाएँ प्रभावित हुए और धीरे-धीरे महिलाओं की सीमित भूमिका को दूर करने के प्रयास किये गये। अधिकाधिक राष्ट्रीय नेताओं ने उनकी राष्ट्रीय भागीदारी का आह्वान किया। प्रारंभ में सीमित मात्रा में भारतीय महिलाएँ लोक-जीवन की चुनौतियों से सामना करने की दिशा में अग्रसर हुई।6
इसके कुछ प्रमाण भी अभिव्यक्त हुए। महिलाएँ राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में कांग्रेस की सक्रिय सदस्य के रूप में संगठित हुई, यद्यपि इस माध्यम से महिला परिवार में पुरूष के अधिकार वाद को पूर्णतः समाप्त करने में असफल रही। किन्तु समाज की इस दृष्टि को चुनौती के प्रमाण के रूप में स्वीकार किये हैं। 7
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में महिला भागीदारी की तीन प्रमुख स्तरों पर इंगित किया गया। प्रथम - वे सामान्य महिलाएँ जिन्होंने ने सत्याग्रह में हिस्सा लिया, किन्तु जो किसी भी राजनीतिक-सामाजिक संगठन से औपचारिक रूप से संबंधित नहीं थी। द्वितीय - वे महिलाएँ जो गाँधीवादी राजनीति से प्रभावित होकर समाज सुधार के ध्येय से सक्रिय हुई। किंतु इनकी भागीदारी कार्य एवं क्षेत्र की दृष्टि से सीमित थी। तृतीय - वे कुलीन महिलाएँ जिनके परिवार राष्ट्रीय आंदोलन से प्रतिबद्ध थे एवं फलतः ऐसी महिलाओं को सार्वजनिक राजनीति में प्रवेश एवं भूमिका सरल एवं स्वाभाविक मानी गई।8
भारत में महिला स्वतंत्रता आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन की राजनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। परम्परागत सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयास स्वयं चुनौतीपूर्ण कार्य था। गांधी ने इस संदर्भ में अनेक दूरगामी प्रयोग किये। उन्होंने सत्याग्रह में महिला को केवल इस कारण ही आमंत्रित नहीं किया कि वे महिला को पुरूष के समान मानते थे, अपितु इस कारण भी कि वे अपने क्षेत्रों में महिला को पुरूष से श्रेष्ठ समझते थे। गांधी जी के अनुसार अहिंसक संघर्ष में महिलाओं के चित में धैर्य, सहिष्णुता एवं कष्ट सहने की क्षमता ऐसे गुण थे, जिनके कारण महिला सफलतापूर्वक संचालित कर सकती थी। उनके अनुसार महिला को कमजोर एवं अबला कहना पुरूष की विकृत दृष्टि एवं परिसीमितता का परिचय है। वे मानते थे कि महिला में पुरूष से अधिक नैतिक शक्ति है, जो शक्तियों से अधिक महत्वूपर्ण है।9
गांधीजी मनुस्मृति के इस नियम को कि महिला पुरूष के अधीन है अतः उसे सीमित स्वतंत्रता दी जाए उचित नहीं मानते थे। उन्होंने बाल विवाह, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा एवं सती प्रथा का विरोध किया। वे विधवा पुनः विवाह के पक्षधर थे।10 गाँधी परिचित थे कि वैधानिक प्रारूप की व्यवहारिक वैधता भी मूलतः सामाजिक स्वीकृति एवं सहमति में निहित है। अतः केवल मात्र शासकीय प्रयासों के द्वारा महिलाओं की स्थिति में सुधार पर्याप्त नहीं हो सकते। महिला समाज की भूमिका एवं संगठन यदि स्पष्ट न हो तो कोई प्रयास प्रभावी नहीं बनेगा। अतः कस्तूरबा, सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, अमृत कौर, प्रभावती, अनुसूया, मीरा बहन, उन महिलाओं में थी जो गांधी जी के संदेश को समझकर औपचारिक आवरण को चुनौती देकर अग्रसर हुई। इस प्रक्रिया में भारत में ही नहीं वरन् दक्षिण एशिया एवं अफ्रीका में भी महिला चेतना को नवीन दिशा प्रदान की। महिला के सम्मुख आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक अस्तित्व के लिये संघर्ष की अर्थपूर्णता परिलक्षित हुई।11
इस काल की विशेषता रही राजनीति और सामाजिक सुधार सामान्तर रूप से चल रहे थे। राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख राजनीति नेता, सामाजिक सुधार की अनिवार्यता से सहमत थे। वे सामाजिक और राजनीतिक सुधारों को पूरक मानते थे। गाँधी जी द्वारा निर्देशित समाज सुधार आंदोलन ने जहां निर्धन वर्ग की महिलाओं को प्रभावित किया। वहीं कुलीन धनिक वर्ग तथा परम्परागत मूल्यों में विश्वास रखने वाले वर्ग की महिलाओं में विश्वास रखने वाले वर्ग की महिलाओं ने अधिकाधिक संख्या में राष्ट्रीय धारा में प्रवेश करने की चुनौती को स्वीकारा।12
राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में जब-जब पुरूष नेतृत्व ब्रिटिश सरकार द्वारा बंदी बना लिया गया तो आंदोलन की दिशा निर्देश का कार्य महिलाओं ने निभाया। महिलाओं ने युद्ध समिति की प्रभावी संचालन किया एवं राष्ट्रीय आंदोलन की गति एवं दिशा को बनाये रखा। अवन्तिका बाई गोखले, श्रीमती रामधार, शांति बाई वेगसरकर, दुर्गा बाई गोखले सत्यावती एवं कृष्णा बाई पंजीकरण कुछ प्रमुख महिलाएँ थी, जिन्होंने अपनी क्षमता और आत्म विश्वास द्वारा सिद्ध कर दिया की महिलाएँ किसी भी दृष्टि से निर्बल नहीं है।13 आगामी वर्षों में राजकुमारी अमृत कौर और धनवन्ती रमाराय की भूमिका महत्वपूर्ण रही। गाँधीजी ने स्पष्ट किया है कि महिलाओं ने प्रमाणित कर दिया और ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहाँ महिला पुरूष के कंधे से कंधा मिलाकर कार्य नहीं कर सकती।14
दिसम्बर 1920 को नागपुर अधिवेशन में असहयोग आंदोलन प्रस्ताव को पारित होने के साथ ही सारे देश में अपूर्व क्रांति का वातावरण निर्मित हो गया। इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए गाँधी जी ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में प्रवेश करने का आह्वान किया जिसका महिलाओं ने अनुकूल उत्तर दिया।15
गाँधीजी ने अपने प्रवास के दौरान बार-बार इस बात पर जोर दिया और अपने उद्बोधन में हर क्षेत्र की महिलाओं से कहा कि - ’’जब तक इस कार्य में महिलाएँ पूरी तरह से सहयोग नहीं करती, तब तक स्वराज्य की आशा रखना व्यर्थ है। महिलाओं का तात्कालिक धर्म तो यह है कि यदि उनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं तो वे उन्हें उन स्कूलों से निकाल ले, लेकिन सबसे महान कार्य है। स्वदेशी का वरण स्वदेशी के बिना राष्ट्रीय जीवन का जाग्रत नहीं रखा जा सकता। देश अपनी जरूरतों का कपड़ा बनाने में समर्थ होने पर भी विदेशों से मंगवाकर पहनता है, इससे प्रति वर्ष राष्ट्र का शोषण होता है। यह दोष महिलाओं के साहस के बिना दूर होने वाला नहीं है। भारत देश की महिलाएँ अनादि काल से सूत कातने का कार्य करती आ रही है। जब से उन्होंने सूत कातना बंद किया, तब से हिन्दुस्तान की आर्थिक स्थिति गिरती गई है। हिन्दुस्तान की स्वाधीनता सूत के धागों पर निर्भर करती है। यदि हिन्दुस्तान अपनी आवश्यकता का सारा सूत झोपड़ियों में कतवा सके और घरों में ही उसका कपड़ा बनवा सके तो उसे इतनी शक्ति प्राप्त हो जाएगी कि उपलब्धि हो सकेगी।’’16
असहयोग आंदोलन के अंतर्गत गाँधीजी ने स्वदेशी को प्रोत्साहन तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का कार्यक्रम रखा। विदेशी वस्त्र बहिष्कार कार्यक्रम के दो पक्ष थे (1) खादी का प्रचार (2) विदेशी वस्त्रों की होली। इस कार्यक्रम में महिलाओं ने अपनी पूर्ण योगदान दिया। महात्मा गांधी ने इन्हीं दिनों भारत वर्ष की महिलाओं के नाम यंग इण्डिया में एक अपील निकाली जिसमें कहा गया कि - ’’भारत वर्ष में महिलाओं ने मातृभूमि के लिए पिछले युग में सम्पति दान की है, बहुमूल्य जेवरात छोड़ दिये है, चंदा इकट्ठा किया है तथा धरना दिया है। परन्तु स्वदेशी कार्यक्रम तभी पूर्ण होगा जब वे अपना सारा विदेशी वस्त्र त्याग देगी। बहिष्कार का उद्देश्य है पूर्ण त्याग और हमें उन्हीं वस्त्रों से संतोष करना पड़ेगा जिन्हें भारत वर्ष बना सकता है।’’17
गांधीजी जहां भी जाते थे महिलाओं से अधिकाधिक आभूषण देश सेवा के लिए दान में देने को कहते थे, इनके विचार में सच्चा सौन्दर्य हृदय में है।18 गाँधी जी चाहते थे महिलाएँ कुशल बने और असहायों की सेवा करने के लिए निकल पड़े।19 यह स्पष्ट है कि 20वीं सदी में महात्मा गाँधी के अभ्युदय से तो महिला जाति में नव जीवन का संचार ही हो गया। उन्होंने सोई हुई महिला जाति को न केवल जगाया बल्कि उनके गौरव तथा महत्व समझा और समझाया।20
प्रथम विश्व युद्ध के बाद गाँधी जी के आह्वान पर सरला देवी चैधरानी और अली बंधु की वृद्ध माता ने स्वाधीनता आंदोलन का संचालन किया। वास्तव में इस काल में चेतना फूंकने वाली रोमांचकारी शासन के प्रति देश की सद्भावना और आस्था को हिला दिया और भारतीय राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ा। सहयोग की जगह गाँधी जी के असहयोग ने प्रतिष्ठा प्राप्त की। पहली बार महिलाओं में सार्वजनिक रूप से ब्रिटिश क्रूरता के विरूद्ध संघर्ष में सक्रिय सहयोग दिया।21
1920-21 के बाद से ही जन आंदोलनों में महिलाओं का योगदान स्पष्ट दिखाई पड़ता है। राष्ट्रीय आंदोलनों के अंतिम चरण में मांगों का स्वरूप बदला। महिलाओं के अधिकारों की मांग की जाने लगी। समाजवाद एवं स्वाधीनता की विस्तृत व्याख्या की जाने लगी। समाजवाद एवं स्वाधीनता से तात्पर्य केवल मात्र आर्थिक शोषण से मुक्ति नहीं वरन् पारिवारिक एवं विदेशी गुलामी से मुक्ति भी है।22
सन् 1921-22 के दौरान बम्बई में महिलाओं की राजनीतिक गतितविधियों का केन्द्र बन गया। नगर में महिलाओं ने हजारों सभाएँ की। वे घर-घर जा-जा कर खादी बेच रही थी इनमें से कुछ हरिजन बच्चों के लिए स्कूल चलाने लगी। दूसरी महिलाओं ने कांग्रेस की शिक्षा और खादी को लोकप्रिय बनाने की योजनाओं और बाढ़ पीड़ितों तथा दूसरी विपदाओं से संतृप्त लोगों के राहत कार्यों के लिए लाखों रूपए इकट्ठे किये ।23
महिलाओं ने आंदोलन के अंतर्गत आने वाली समस्याओं का डटकर मुकाबला किया महिलाओं ने समस्याओं के सामने झुके नहीं बल्कि सामना करते हुए देश की आजादी में अपना अमूल्य योगदान दिया।
संदर्भ सूची
1. कमला देसिकन, गाँधी पंचायत, संस्कृति भवन, भोपाल, 1997.
2. सम्पूर्ण गाँधी वाङमय, खण्ड 36, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1928, पृ. 204-205.
3. सुमंगल प्रकाश, स्वराज्य की कहानी, भाग 02, नई दिल्ली, 1972, पृ. 34-35.
4. पूर्वोक्त,
5. पूर्वोक्त,
6. पूर्वोक्त,
7. मंजू जैन, कर्मशील महिलाएँ एवं सामाजिक परिवर्तन, बरेली, 1967, पृ. 11-12.
8. विजय एग्न्यू, इलीट विमेन इन इण्डियन पोलिटिक्स, पृ. 4
9. एम. के. गाँधी विमेन्स रोल इन सोसाईटी, अहमदाबाद, 1959, पृ. 9.
10. मंजू जैन, कर्मशील महिलाएँ एवं सामाजिक परिवर्तन, बरेली, पृ. 1967, पृ. 328.
11. एम. के. गाँधी विमेन्स रोल इन सोसाईटी, अहमदाबाद, 1959, पृ. 13-14.
12. पूर्वोक्त,
13. कमला देवी चटोपाध्याय, दि अवेकनिंग आॅफ इंडियन विमेन, मद्रास, 1936, पृ. 331
14. मंजू जैन, कर्मशील महिलाएँ एवं सामाजिक परिवर्तन, पृ. 328.
15. राम लक्ष्मी गौड़, महिला जागरण और महात्मा गाँधी, मध्यप्रदेश संदेश, दिसम्बर 1971, पृ. 68
16. मार्तण्ड उपाध्याय, गाँधी संस्करण, पृ. 526.
17. वी.वी. गिरि, 1921 के असहयोग आंदोलन की झांकिया नई दिल्ली, 1951, पृ. 33.
18. यंग इण्डिया, 11 अगस्त, 1921.
19. गाँधी जी विवाह समस्या अर्थात् स्त्री जीवन, पृ. 84.
20. पूनम मिश्रा, बापू के विचार महिलाओं के लिए पृ. 52.
21. काका साहिब कालेलकर गाँधी-संस्मरण और सस्सा साहित्य मंडल, नई दिल्ली, 1968.
22. राज लक्ष्मी गौड़, नारी जाति के उद्धारक महात्मा गाँधी की जय, पृ. 22.
23. मंजू जैन, कर्मशील महिलाएँ एवं सामाजिक परिवर्तन, पृ. 97
Received on 05.02.2013
Revised on 26.02.2013
Accepted on 04.03.2013
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Research J. Humanities and Social Sciences. 4(2): April-June, 2013, 161-163